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ग्रामीण क्षेत्रों में हर्षोल्लास के साथ मनाया गया छेरछेरा पूर्व

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हिरमी – रावन: ग्रामीण अंचल हिरमी, मोहरा, सुहेला, बिटकुली , नयापारा ,भटभेरा रावन, जागड़ा , तिल्दाबांधा सहित छत्तीसगढ़ में लोक परंपरा के अनुसार पौष महीने की पूर्णिमा को प्रतिवर्ष छेरछेरा का त्योहार हर्षोल्लास के साथ मनाया गया। गांव के युवक और बच्चे घर-घर जाकर डंडा नृत्य किया और अन्ना का दान मांगा। वहीं बधाों व महिलाओं की टोली में सुआ नृत्य के साथ घर-घर जाकर अन्ना मांगा। धान मिंजाई के बाद गांवों में घर-घर धान का भंडार होता है। जिसके चलते लोग छेरछेरा मांगने वालों को दान करते हैं। छेरछेरा, माई कोठी के धान ला हेर हेरा । यही आवाज सोमवार को अंचल में गूंजी और दान के रूप में धान और नगद राशि बांटी गई। पूरे छत्तीसगढ़ सहित अंचल में मनाए जाने वाला छेरछेरा सोमवार को उत्साह से मनाया।यह त्योहार दो दिन का होता है। जिसमें बालक व बालिकाओं की टोली हाथ में थैला लिए घरों में जाकर अन्ना-धन्ना मांग रही है। कोई भी परिवार अपने बच्चों को नजराना मांगते हुए नहीं देखना चाहता, लेकिन वर्ष में एक दिन ऐसा भी होता है जब परिवार के लोग खुद बच्चों को नहला-धुलाकर तैयार करते हैं। उन्हें अच्छे कपड़े पहनाते हैं और झोला पकड़कर घर-घर अन्ना-धन्ना मांगने को कहते हैं। यह त्योहार हर वर्ष पौष मास की पूर्णिमा को पूरे अंचल व राज्य में छेरछेरा पुन्नाी के रूप में मनाया जाता है।दिलेश्वर मढ़रिया ने बताया कि मान्यता है कि इस दिन दान करने से घर में अनाज की कोई कमी नहीं रहती। इस त्योहार के शुरू होने की कहानी रोचक है। बताया जाता है कि कौशल प्रदेश के राजा कल्याण साय ने मुगल सम्राट जहांगीर की सल्तनत में रहकर राजनीति और युद्घकला की शिक्षा ली थी। वह करीब आठ वर्ष तक राज्य से दूर रहे। शिक्षा लेने के बाद जब वे रतनपुर आए तो लोगों को इसकी खबर लगी। खबर मिलते ही लोग राजमहल की ओर चल पड़े, कोई बैलगाड़ी से, तो कोई पैदल। छत्तीसगढ़ों के राजा भी कौशल नरेश के स्वागत के लिए रतनपुर पहुंचे। अपने राजा को आठ वर्ष बाद देख कौशल देश की प्रजा खुशी से झूम उठी। लोक गीतों और गाजे-बाजे की धुन पर हर कोई नाच रहा था। राजा की अनुपस्थिति में उनकी पत्नी रानी फुलकैना ने आठ वर्ष तक राजकाज संभाला था। इतने समय बाद अपने पति को देख वह खुशी से फूली जा रही थी। उन्होंने दोनों हाथों से सोने-चांदी के सिक्के प्रजा में लुटाए। इसके बाद राजा कल्याण साय ने उपस्थित राजाओं को निर्देश दिए कि आज के दिन को हमेशा त्योहार के रूप में मनाया जाएगा और इस दिन किसी के घर से कोई याचक खाली हाथ नहीं जाएगा। इस दिन यदि आपके घर में छेर, छेरा! माई कोठी के धान ला हेर हेरा सुनाई दे तो चैंकिएगा नहीं। बस एक-एक मुट्ठी अनाज बधाों की झोली में डाल दीजिएगा नहीं तो वे आपने दरवाजे से हटेंगे नहीं और कहते रहेंगे, अरन बरन कोदो करन, जब्भे देबे तब्भे टरन।अंचल में इस त्योहार का वैसा ही महत्व है जैसा कि होली-दिवाली। खास बात यह है कि इसे पूरे प्रदेश में मनाया जाता है यह किसी एक क्षेत्र का त्योहार नहीं है।छत्तीसगढ़ी संस्कृति के जानकारों के अनुसार छेरछेरा के दिन मांगने वाला याचक यानी ब्राह्मण के रूप में होता है तो देने वाली महिलाएं शाकंभरी देवी के रूप में होती है। छेरी, छै,अरी से मिलकर बना है। मनुष्य के छह बैरी काम, क्रोध, मोह, लोभ, तृष्णा और अहंकार है। बड़े जब कहते हैं कि छेरिक छेरा छेर मरकनीन छेर छेरा तो इसका अर्थ है कि हे मकरनीन (देवी) हम आपके द्वार में आए हैं। माई कोठी के धान को देकर हमारे दुख व दरिद्रता को दूर कीजिए। यही कारण है कि महिलाएं धान, कोदो के साथ सब्जी व फल दान कर याचक को विदा करते हैं। कोई भी महिला इस दिन किसी भी याचक को खाली हाथ नहीं जाने देती। वे क्षमता अनुसार धान-धन्ना जरूर दान करते हैं।छेरछेरा मनाने के पीछे एक कारण यह भीजनश्रुति है कि एक समय धरती पर घोर अकाल पड़ा। अन्ना, फल, फूल व औषधि नहीं उपज पाई। इससे मनुष्य के साथ जीव-जंतु भी हलाकान हो गए। सभी ओर त्राहि-त्राहि मच गई। ऋषि-मुनि व आमजन भूख से थर्रा गए। तब आदि देवी शक्ति शाकंभरी की पुकार की गई। शाकंभरी देवी प्रकट हुई और अन्ना, फल, फूल व औषधि का भंडार दे गई। इससे ऋषि-मुनि समेत आमजनों की भूख व दर्द दूर हो गया। इसी की याद में छेरछेरा मनाए जाने की बात कही जाती है। पौष में किसानों की कोठी धान से परिपूर्ण होता है। खेतों में सरसों, चना, गेहूं की फसल लहलहा रही होती है।बच्चे व युवा हाथों में डंडा लिए दोहराते रहे दोहाछेरछेरा पर्व को लेकर बड़े व युवाओं में खासा उत्साह देखने को मिल रहा है। वहीं युवाओं ने दोहा दोहराते हुए कहा कि सरसों फूले घमाघम भैया, मुनगा फूले सफेद रे, बालक पन में केंवरा बधेंव, जवानी पन में भेंट रे।

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