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सफेद लिबाज: सुहागिन न सजती है न संवरती है बिना सिंदूर के सुहागन की कहानी जानकर आप हो जाएंगे हैरान…..देखिए विडियो

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न्यूज डेस्क गरियाबंद : सुहागन…शब्द सुनते ही मस्तिष्क पटल पर रंग बिरंगी साड़ी पहने..सजी धजी महिलाओ की तस्वीर स्वताः ही छप जाती है। पर हम कहे की सभी सुहागिन सजती संवरती नही है, तो आप भी हैरान होंगे..जी हां आज हमको सिंदूर बिना सुहागन रहने वाली महिलाओं की सच्ची तस्वीर दिखाने जा रहे हैं,साथ ही इसके पीछे की वजह भी बताएंगे..देखिए गरियाबंद से हमारी ये खास रिपोर्ट इन रंगीन घरों के चार दिवारी के भीतर मौजूद, महिलाओ की मांगे सुनी है..माथे पर टीका भी नही…,कलाई में कांच की नही कांसे की चूड़ियां पहनी हुई हैं,लिबाज भी विधवाओं की तरह सफेद है.. पर यकीन मानिए ये भी सुहागन हैं।गरियाबंद तहसील मुख्यालय से 24 किमी दूर कोसमी गांव में रहने वाले आदिवासी पुजारी परिवार के घर, सिंदूर बिना सुहागन की रिवाज पीढ़ियों से चली आ रही है।गांव में 32 परिवार रहते हैं,जहा दो पीढ़ियों की 28 बहुएं मौजूद हैं ,जिनमे से 4 विधवा भी हैं।एक साथ बैठ गए तो बाहरी व्यक्ति को सुहागन व विधवा में फर्क नजर नही आता।पिछली 10 पीढ़ियों से चली आ रही प्रथा के मुताबिक सुहागन के हाथ में कांसे की चूड़ियां ,जबकि विधवा के हाथ में चांदी की चूड़ी होती है जिसे बीच से कट किया जाता है। 10 पीढ़ियों से लागू इस रिवाज में चौथी पीढ़ी के समय से मंगलसूत्र पहनने का साहस बहुएं जुटा सकी हैं। फिरत राम ध्रुव,पुजारी कोसमी( सर में बाल कम है,सफेद कपड़ा)जितनी चौकाने वाली ये प्रथा है..इसकी वजह भी उतना ही हैरान करने वाला है।पूर्वजों के हवाले से वर्तमान पीढ़ी के पुजारी बताते हैं कि 10 पीढ़ी पहले के हमारे मुखिया, खेतो में किसानी काम के दरम्यान भोजन विश्राम के समय में उन्हे, रोजाना नारी के वेश में आई धूमादेवी अपने हाथो से भोजन करा देती थी।रोजाना जब पूजारिन का दिया भोजन वापस आने लगा तो एक दिन कारण पता करने पूजारीन भी खेतो तक पहुच झाड़ियों में छुप गई।देवी के रहस्य से अनजान पूजारिन,पराई स्त्री के हाथो भोजन करते देख आपा खो बैठी,झाड़ियों की डंगाली तोड़ पराई स्त्री की पिटाई कर दी,तभी आक्रोशित देवी ने परिवार के सुहागन स्त्रीयो को पति के जीवित रहने के बावजूद विधवा की तरह रहने का अभिशाप दे दिया।तब से परिवार की बहुएं विधवा लिबाज में रह कर देवी के अभिशाप को न केवल शिरोधार्य की हुई है बल्कि इस घटना के बाद से उन्हे बड़े माई के रूप में वंशज पूजते आ रहे हैं। कमली बाई ( 9वी पीढ़ी की बहू,रिवाज तोड़ने की कोशिश के परिणाम की प्रत्यक्ष दर्शी)सांवली सी 40 साल की महिला)

देखने व सुनने वाले इसे भले ही इस रिवाज को अंधविश्वास से जोड़ कर देखते हैं ,पर परिवार के उन सदस्यो का दावा है जब जब उन्होंने ने प्रथा को तोड़ने की कोशिश किया उन्हे शारीरिक कष्ट मिली।परिवार में सबसे ज्यादा पढ़े लिखे है हरी यादव जो सहकारी बैंक में मेनेजर के पोस्ट पर हैं।हरी राम बताते हैं कि 21वी सदी में यह अटपटा जरूर लगता है पर यह प्रथा अब अंधविश्वास नही आस्था का रूप ले लिया है। नई पीढ़ी बदलाव करना चाहती है,पर घर अब बड़ी माई के रूप में पूजे जाने वाले देवी के मूंह से निकले शब्दो के काट का इनके पास कोई विकल्प नहीं है।पत्नी ललिता बताती है की गांव तक तो ठीक है पर गांव से बाहर रहने पर ,पहनावा को लेकर सवाल करने वाले सभी की जिज्ञासा पुरी करनी पड़ती है। नए रिश्ते जोड़ने जाते हैं तो समंधियो को रिवाज की पूरी जानकारी देने के अलवा होने वाली बहुओं को रजा मंदी भी लेते है।लिहाजा बहुओं को भी इस रिवाज से कोई गुरेज नहीं होता।

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